‘यू नो आई हेट बिहारी पीपल’ क्या करें ऐसी सोच वाले ‘वेल एजुकेटेड’ लोगों का?

मैं डिपार्टमेंट से गुज़र रहा था कि चलते-चलते हल्की सी आवाज़ कान मे पड़ी, दो लोगों आपस में बात कर रहे थे। उनमें से एक ने किसी बात पर कहा, “यू नो आई हेट बिहारी पीपल…” उस वक़्त मेरी क्लास थी और मैं ज़ल्दी में था तो चला गया। बाद में वही व्यक्ति किसी जूनियर को देखकर बोलता है, “यू लुक लाईक अ बिहारी!”

IIT मद्रास जैसे बड़े संस्थान में इस तरह की घटनाएं आम नहीं हैं, लेकिन फिर भी ऐसे बहुत से लोग ऐसी नस्लभेदी टिप्पणियां करते हुए मिल जाएंगे। ये समाज का वही शिक्षित वर्ग है जिनसे ऐसी उम्मीद नहीं की जाती।

बिहार के लोगों पर ऐसे कमेंट सुनकर मैं सोचता हूं कि बिहारी क्या कुछ अलग दिखते हैं? वो भी तो इंसान ही हैं तो भी लोख कैसे भेद कर पाते हैं और दिक्कत क्या है तुम्हें बिहारियों से? क्यूंकि देशभर में बिहारी माइग्रेंट्स की संख्या सबसे ज़्यादा है? लेकिन ध्यान रहे की किसी को शौक नहीं होता अपना घर-परिवार, गांव-ज़मीन छोड़कर दूसरी जगह बसने का, लेकिन करें भी तो क्या? रोज़गार और शिक्षा के बहुत ही सीमित अवसर होने की वजह से लोगों को बाहर जाना ही पड़ता है।

एक दिन बिहार से होने वाले माइग्रेशन के बारे मे इंटरनेट पर पढ़ते हुए मुझे विकीपीडिया पर Anti Bihari Sentiment का शीर्षक देखने को मिला तो पहली बार में मुझे विश्वास नहीं हुआ। लेकिन पिछले अनुभवों के याद करने के बाद सोचा की ऐसा हो सकता है, जब पढ़े-लिखे लोग ही इस तरह से सोचते हैं तो फिर इसमें आश्चर्य करने वाली बात ही क्या है। इस पेज के अनुसार, 90 के दशक में धीमी आर्थिक प्रगति की वजह से, बिहार से बहुत सारे लोग काम की तलाश में देश के दूसरे हिस्सों में विस्थापित हो गए, जिनके खिलाफ धीरे- धीरे एक नस्लीय विद्वेष उत्पन्न हुआ और समय के साथ बढ़ते-बढ़ते इसने हिंसात्मक रूप ले लिया।

बिहार से होने वाली माइग्रेशन की कई वजहें हैं जिनमें प्रमुख हैं, राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार, पिछली सरकारों द्वारा आर्थिक विकास की अवहेलना, औद्योगिकरण नहीं होना और सरकारी योजनाओं की विफलता आदि। झारखंड के अलग होने के बाद बिहार की लगभग सारी खनिज संपदा झारखंड के हिस्से में चली गई। यही वो समय था जब सरकार को विकास के दूसरे पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए था, लेकिन सरकारी निष्क्रियता और सिस्टम में व्याप्त भ्रष्टाचार की वजह सारी योजनाएं असफल रही।

इस तरह बिहार ऐसी स्थिति में पहुंच गया कि आज भी सबसे पिछड़े राज्यों में से एक है। मनरेगा की वजह से हालांकि माइग्रेशन में कुछ हद तक कमी आई है, लेकिन भ्रष्टाचार की वजह से बहुत ही कम लोग इससे लाभान्वित हो सके हैं। पिछली छुट्टियों के दौरान घर पर एक माइग्रेंट वर्कर से इस बाबत पूछताछ की कि मनरेगा के बाद भी वो क्यूं दूसरे राज्यों में काम की तलाश में भटक रहे हैं? उनका कहना था “मुझे तो अभी तक अपना लेबर कार्ड भी नहीं मिला है और जिनको मिला है उनको सौ दिन तो दूर की बात है, तीस दिन भी काम मिल जाए तो बहुत है। इतने दिन काम करने से घर थोड़े-ना चल पाएगा।”

वर्ल्ड वैल्यू सर्वे, द्वारा 2015 में किए गए एक सर्वे के अनुसार, भारत में 40.9% ऐसे लोग थे जो किसी और नस्ल के पड़ोसी के साथ रहना पसंद नहीं करते हालांकि ये संख्या 2016 में 25.6 % थी लेकिन अब भी ये काफी चिंताजनक मसला है।

बिहारियों के खिलाफ होने वाली हिंसा की घटनाएं नस्लवाद का ही उदाहरण हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि इस तरह की घटनाओं में शिक्षित या अनपढ़, हर तरह के लोग शामिल हैं।

भारत जहां नस्लभेद जैसे मुद्दे को सिरे से नकार दिया जाता है, वहां नस्लीय भेदभाव और उत्पीड़न की कई सारी ऐसी घटनाएं आपको मिल जाएंगी। चाहे वो देश के विभिन्न इलाकों में नाॅर्थ-ईस्ट से आने वाले लोगों पर होने वाले जानलेवा हमले हों या फिर बिहार और यूपी के लोगों के खिलाफ मुंबई या कोच्चि में होनी वाली हिंसा और उत्पीड़न की घटनाएं।

इकोनाॅमिक सर्वे 2016-17 के अनुसार हर साल 9 मिलियन लोग अन्य राज्यों में काम या शिक्षा की तलाश में माइग्रेट करते हैं। सर्वे के आंकड़ो के मुताबिक, दिल्ली प्रवासियों की सबसे पसंदीदा जगह है और यहाँ आने वाले प्रवासियों में आधे से अधिक बिहार या यूपी से होते हैं। इतने बड़े स्तर पर माइग्रेशन के बावजूद देश सुचारू रूप से चल रहा है और यही तो हमारे देश की यूएसपी है। अन्य देश अब भी यही सोचते हैं कि कैसे इतनी सारी विभिन्नताओं के बावजूद भारत एकजुट खड़ा है। लेकिन पिछले कुछ अर्से से मुंबई, बैंगलोर और दिल्ली की घटनाएं इस पर सवाल खड़े करती हैं। लोगों को एकदूसरे के साथ रहना सीखना होगा। अगर हमारी भाषा अलग है, पहनावा अलग है तो क्या फर्क पड़ता है इन सबसे? हम सब इंसान ही तो हैं।

 

Source: अरविंद Youth Ki Awaaz Hindi
This article was first published on Youth Ki Awaaz Hindi

 

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