कौमी एकता के मिसाल | मौलाना मज़हरूल हक़

मौलाना मज़हरूल हक़
देश की आज़ादी की लड़ाई में शामिल महान विभूतियों में से एक नाम मौलाना मज़हरूल हक़ का है जिन्हें हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक भी माना जाता है। साल 1866 में पटना के बहपुरा नामक गांव में जन्मे मौलाना के बलिदान आदर्शों से नई पीढ़ी को अवगत होना जरूरी है।

एक अमीर जमींदार के घर पैदा होने वाले मौलाना मज़हरूल हक़ ने अपनी प्राथमिक शिक्षा मौलवी सजाद हुसैन से घर पर ही ग्रहण की। जिसके बाद 1886 में मैट्रिक पास कर, लखनऊ में उच्च शिक्षा के लिए कैनिंग कॉलेज में दाखिला ले लिया। लेकिन उसी साल कानून की पढ़ाई करने के लिए वह इंग्लैंड चले गए। वहां से कानून की शिक्षा लेने के बाद वह वापस 1891 में अपने वतन लौटे और यहाँ पटना में वकालत की प्रैक्टिस शुरू कर दी। उस वक़्त जब बड़ी संख्या में छात्र, सरकारी कॉलेज और स्कूल छोड़ गांधीजी के भारत को स्वतंत्र कराने के आंदोलन से जुड़ रहे थे, तब पटना में एक स्थान खरीदकर छात्रों की शिक्षा जारी रखने के लिए बिहार विद्यापीठ की नींव खुद मौलाना मज़हरूल हक़ ने डाली थी.

जो ‘सदाक़त आश्रम’ के नाम से जाना गया। जो बाद में जाकर अखिल भारतीय कांग्रेस का केंद्रीय कार्यालय बना।

बिहार विद्यापीठ का विधिवत् उद्घाटन 6 फरवरी 1921 को मौलाना मुहम्मद अली जौहर और कस्तूरबा गांधी के साथ पटना पहुंचे महात्मा गांधी ने किया था. मौलाना मज़हरूल हक़ इस विद्यापीठ के पहले चांसलर नियुक्त हुए.

वहीं ब्रजकिशोर प्रसाद वाईस-चांसलर और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद प्रधानाचार्य बनाए गए. इस विद्यापीठ में जो पाठ्यक्रम अपनाया गया उसे ब्रिटिश शिक्षा नीतियों से अलग रखा गया था. इस नई शिक्षा पद्धति में यह व्यवस्था की गई थी कि छात्रों की शैक्षिक योग्यता तो बढ़े ही, साथ ही उनमें बहुमुखी प्रतिभा का भी विकास हो. उनमें श्रम की आदत को विकसित करने के प्रयास भी यहां के पाठ्यक्रम में शामिल थे ताकि छात्रों को कोई काम छोटा या बड़ा न लगे. उन्हें सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ खडा करने और नए मूल्यों पर समाज की स्थापना करने के लिए प्रेरित किया जाता था.

अखिल भारतीय कांग्रेस का केंद्रीय कार्यालय गांधीजी के साथ लन्दन में पढ़ाई करते हुए ही मौलाना और महात्मा गांधी के बीच राजनीतिक नजदीकियां शुरू हुई थी।

1897 में सारण में अकाल के दौरानमौलाना मज़हरूल हक़ ने राहत कार्य चलाया था, असहयोग और खिलाफत आन्दोलन में विशेष भूमिका अदा करने वाले मौलाना ने 1917 में हुए चंपारण सत्याग्रह में भी महात्मा गाँधी के साथ मिलकर ब्रिटिश हुकूमत की जंजीरों से आजादी पाने के उद्देश्य से अपनी आवाज बुलंद की थी।

सत्याग्रह आंदोलन में उनकी सक्रिय भूमिका को देखते हुए अंग्रेजों ने उन्हें तीन महीने के लिए कारावास में नजरबन्द कर दिया था।

मौलाना ने अपनी अध्यक्षता में बिहार में होम रूल आंदोलन का आयोजन भी किया। मौलाना मज़हरूल हक़ ने 1921 में साप्ताहिक अंग्रेजी अखबार ‘द मदरलैंड’ शुरू किया। इस अखबार ने असहयोग आंदोलन में होने वाली सभी गतिविधियों को जन-जन तक पहुंचाने का काम किया।

जब असहयोग और खिलाफत आंदोलन की शुरुआत हुई तब मौलाना मज़हरूल हक़ ने अपने कानूनी अभ्यास और इंपीरियल विधान परिषद के सदस्य के रूप में अपने निर्वाचित पद का त्याग करते हुए, भारत की आजादी की लड़ाई में वह अग्रसर हो गए।

मौलाना ने 1919 में पश्चिमी पोशाक को जलाते हुए उसे न पहनने और सिर्फ परंपरागत पोशाक को धारण करने का निर्णय लिया। मौलाना हिन्दू मुस्लिम एकता के दृढ़ पालक थे। उनका कहना था- “चाहे हम हिन्दू हो या मुसलमान, हम एक ही कश्ती में सवार है, हमें एक साथ ही आगे बढ़ना होगा।”

जब मौलाना मज़हरूल हक़ लन्दन में थे तब उन्होंने वहां अंजुमन इस्लामिया की स्थापना की, जो विभिन्न धर्म, क्षेत्र और संप्रदायों के भारतीयों को एक साथ लेकर आया। अंजुमन इस्लामिया में ही पहली बार मौलाना की मुलाकात गांधीजी से हुई थी।

बिहार के बहपुरा में जन्मे, राजनीति को अलविदा कह चुके मौलाना ने अंतिम सांस अपने आवासीय स्थान ‘आशियाना’ में ली।

एक शख्स जिसने भारत को आजादी और उसके उज्जवल भविष्य के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया, उन्हें मुश्किल से ही वो दर्जा हासिल हुआ जिसके वह असल हकदार थे।

सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने के उद्देश्य से मौलाना मज़हरूल हक़ ने बच्चों की शिक्षा के लिए एक ही परिसर में मदरसा और मिडिल स्कूल की शुरुआत करने के मकसद से अपने घर को दान कर दिया।

कौन थे मौलाना मज़हरूल हक़ ?

मौलाना मज़हरूल हक़ के बारे में गांधी ने लिखा था, ‘मज़हरूल हक़ एक निष्ठावान देशभक्त, अच्छे मुसलमान और दार्शनिक थे. बड़ी ऐश व आराम की ज़िन्दगी बिताते थे, पर जब असहयोग का अवसर आया तो पुराने किंचली की तरह सब आडम्बरों का त्याग कर दिया. राजकुमारों जैसी ठाठबाट वाली ज़िन्दगी को छोड़ अब एक सूफ़ी दरवेश की ज़िन्दगी गुज़ारने लगे. वह अपनी कथनी और करनी में निडर और निष्कपट थे, बेबाक थे. पटना के नज़दीक सदाक़त आश्रम उनकी निष्ठा, सेवा और करमठता का ही नतीजा है. अपनी इच्छा के अनुसार ज़्यादा दिन वह वहां नहीं रहे, उनके आश्रम की कल्पना ने विद्यापीठ के लिए एक स्थान उपलब्ध करा दिया. उनकी यह कोशिश दोनों समुदाय को एकता के सूत्र में बांधने वाला सीमेंट सिद्ध होगी. ऐसे कर्मठ व्यक्ति का अभाव हमेशा खटकेगा और ख़ासतौर पर आज जबकि देश अपने एक ऐतिहासिक मोड़ पर है, उनकी कमी का शिद्दत से अहसास होगा.’

महात्मा गांधी ने मौलाना मज़हरूल हक़ के लिए ये बातें उनके देहांत पर संवेदना के रूप में 9 जनवरी 1930 को यंग इन्डिया में लिखी थीं. वहीं पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी आत्मकथा में लिखा था, ‘मज़हरूल हक़ के चले जाने से हिन्दू-मुस्लिम एकता और समझौते का एक बड़ा स्तंभ टूट गया. इस विषय में हम निराधार हो गए.’