विश्व गौरैया दिवस पर रश्मि शर्मा की ‘ओ री गौरैया’ | ‘एक कविता बिहार से’

गौरैया का हमारे समाज में बेहद अहम स्थान रहा है। हमारे रोशनदानों, आँगन के झरोखों से होते हुए कब गौरैया ने हमारे किस्से कविताओं का हिस्सा हो गई हमें पता भी नहीं चला। आज विश्व गौरैया दिवस है और यह बताने की ज़रूरत नहीं की इंसान की सबसे पुराने साथियों में से एक, गौरैया की संख्या दिन प्रतिदिन घटती ही जा रही है। यह चिंता का विषय तो है मगर कुछ लोग इस पर आगे हैं और उम्मीद है कि हालत सुधरेगी। आज ‘एक कविता बिहार से’ में प्रस्तुत है रश्मि शर्मा की कविता ‘ओ री गौरैया’ जिसमें वह गौरैया से उसकी नाराज़गी पर प्रश्न करती हैं। यह कविता, गौरैया की घटती संख्या पर भी रौशनी डालती है।  

रश्मि शर्मा का जन्म मेहसी, पूर्वी चम्पारण में हुआ। उनकी पढ़ाई रांची विश्विद्यालय से हुई और फिलहाल अभी रांची में ही रहती हैं। रश्मि के लेखन में आपको प्रकृति के प्रति लगाव के साथ-साथ मोह माया से एक तरह का अलगाव भी नज़र आता है।

 

                                                                                         ओ री गौरैया

क्‍यों नहीं गाती अब तुम

मौसम के गीत

क्‍यों नहीं फुदकती

मेरे घर-आंगन में

क्‍यों नहीं करती शोर

झुंड के झुंड बैठ बाजू वाले

पीपल की डाल पर

ओ री चि‍ड़ी

क्‍या तेरे घोंसले पर भी है

कि‍सी काले बि‍ल्‍ले की

बुरी नज़र

कि‍सी के आँगन

कि‍सी की छत पर

नहीं है तेरे लि‍ए

थोड़ी सी भी जगह

ओ री चराई पाखी

कहॉं गुम गई तेरी चीं-चीं

क्‍यों नहीं चुगती अब तू

इन हाथों से दाना

क्‍यों नहीं गाती

भोर में तू अपना गाना

ओ री छोटी चि‍ड़ि‍या

अब हैं पक्‍के मकान सारे

कहां बनाएगी तू घोंसला

चोंच में दबाकर

कहां ले जाएगी ति‍नका

ओ री मेरी गौरैया

रूठ न जाना, खो न जाना

आओ न

मेरे आंगन वाले आइने पर

अपनी शक्‍ल देख

फि‍र से चोंच लड़ाना

मेरे बच्‍चों को भी सि‍खा देना

संग-संग चहचहाना।

 

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