यह सच है, बॉलीवुड का एक युग संगीतकारों और गीतकारों के नाम रहा है| यह भी उतना ही सच है कि नये युग के गीत की तुलना हमेशा पुराने युग से की जाती रही है| नये कलमकारों में बहुत कम ऐसे हैं जिनकी कलम में प्राकृतिक निकटता, मधुरता और सच्चाई की झलक तो है ही साथ ही प्रसिद्धि की चमक भी है|
एक अरसे बाद कोई फिल्म आती है, देसी कहानी के साथ| कब इसके गाने लोगों की प्लेलिस्ट से निकल कर जुबान पर चढ़ जाते हैं, किसी को खबर नहीं होती| खबर किसी को इस बात की भी नहीं लगती कि इन गानों का संगीत जितना खुबसूरत था, उतनी की खूबसूरती से इनके शब्दों को भी पिरोया गया था| हाँ, खबर इसकी भी नहीं लगी कि ये शब्द पिरोने वाला शख्स बिहार से है|
जी! हम बात कर रहे हैं, तनु वेड्स मनु, तनु वेड्स मनु रिटर्न्स और ऊँगा जैसी फिल्मों में गीतकार की भूमिका अदा करने वाले कवि राज शेखर की| श्री शेखर जी बिहार के मधेपुरा जिले से हैं| 22 सितम्बर 1980 ई० को जन्में राजशेखर जी की शिक्षा-दीक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय से हुई| इनकी लेखनी में सीधे-सादे देसी शब्दों की महक है और प्राकृतिक सौन्दर्य का रस भी| राज जी खुद भी कहते हैं, “जब गाँव जाता हूँ, वहाँ से कुछ शब्द उठा लाता हूँ”| ‘कितनी दफे दिल ने कहा’ हो, ‘रंगरेज मेरे’ या फिर ‘घनी बावरी’ हर गाने में सीधी और सच्ची बात|
तो पटनाबीट्स के ‘एक कविता बिहार से’ से आज जुड़ रहे हैं कवि राजशेखर अपनी एक कविता ‘जंतर-मंतर पे लोरी’ के साथ, जो उन्होंने जंतर-मंतर पर हक की लड़ाई लड़ने वालों की नींद के नाम की है| मगर उससे पहले, नियमगिरि पर्वत के लिए लिखी गयी इनकी एक मशहूर कविता ‘नियमराजा’ से कुछ अंश पेश है|
“हो देव! हो देव!
बस एक बात रहे,
नियमगिरि साथ रहे,
जंगल के माथे पे
उसके दोनों हाथ रहे|
टेसू-पलाश फूले,
लाले-लाले लहर-लहर,
मांदल पर थाप पड़े,
धिनिक-धिनिक, थपड-थपड|
दिमसा का नाच चले,
तनिक-तनिक संवर-संवर,
गाँव-गाँव-गाँव रहे,
दूर रहे शहर-शहर|
वर्दी वाले भाई,
तुम आना इधर,
ठहर-ठहर-ठहर-ठहर|
माटी के कुइया-मुइया
जंगल के हइया-हुइया
कुइया-मुइया, हइया-हुइया
कुइया-मुइया हम|”
जंतर-मंतर पे लोरी
जुलुम तेरा हाय रे,
बढ़ता ही जाए रे,
दुःख तेरे देश इतने
निंदिया न आये रे|
भूखे-भूखे पेट अपने,
निंदिया न आये रे|
दरद से ये देह टूटे
निंदिया न आये रे|
इस तकलीफदेह रात का अँधेरा,
ये शोरोगुल, ये उदासियाँ,
तुम्हारे पीठ पर के नील,
कहो तो इसे साझा कर लें?
और अब सो जाओ थोड़ी देर|
एहसान क्या!
जब फूटेगा भोर,
जब बदलेंगे दिन,
वो भी बाँट लेंगे,
तब कर लेंगे न हिसाब,
सोने-जागने का|
भारी बूटों की धमक से,
झूठे वादों की चमक से,
मजलूमों की कसक से,
निंदिया न आये रे|
खेतों से उठती महक ये,
चाँद-तारे और धमक ये,
सूरज भी कहता फलक से,
अब तो सो जा रे|
अब सो जा साथी रे|
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