कहते हैं दुनिया गोल है. आज के दौर में आप किसी भी कोने में चले जाइए, आपको वहाँ किसी दूसरे छोर से आए लोग मिल ही जाएँगे. मेरे लद्दाख़ दौरे के दौरान भी ऐसा ही हुआ.
आमतौर पर वहाँ मुझे या तो स्थानीय लोग दिखे या विदेशी सैलानी और कुछ भारतीय पर्यटक. लेकिन एक दिन शाम को लेह क़स्बे के बीचों-बीच गुज़रते हुए कुछ अलग बोली कानों में पड़ी. मैने देखा कि एक चौराहे पर लोगों का बड़ा सा झुंड बैठा है.
पूछने पर पता चला कि बड़ी संख्या में लोग बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों से लद्दाख़ की ठंड में काम करने आते हैं. कहाँ गंगा किनारे वाला बिहार और कहाँ कड़ाके की ठिठुरन वाले हिमालय में बसा लद्दाख़.
बस अगले दिन सुबह-सुबह पता ढूँढते ढूँढते मैं लद्दाख़ के उस इलाक़े में आ पहुँची जहाँ इन लोगों ने अपनी बस्ती बना रखी है. तंग गली से होते हुए मैं उनके किराए के मकान पर पहुँची.
छोटे-छोटे कमरे, उसी में रसोईघर, कुछ बर्तन, कपड़े लत्ते… मानो पूरा घर एक छोटे से कमरे के एक कोने में सिमट गया हो. ख़ैर मैंने अपना परिचय दिया और बातचीत शुरू हुई.
पहले सज्जन ने बताया, “मैं उत्तर प्रदेश का रहने वाला हूँ, लखनऊ से. पहले दो महीने के लिए आया था. वहां वेतन कम मिलता था. बस यही है.” बातचीत में हिचकिचाहट थी और बातचीत का सिलसिला शुरू में कुछ जमा नहीं.
लेकिन बात जब अपनी मिट्टी, अपने घर की हो तो दिल की बात बाहर आने में, अपनी टीस बताने में ज़्यादा देर नहीं लगती.
अनूप कुमार ने बताया, “मैं सिवान ज़िला का रहने वाला हूँ और तीन साल से यहाँ रहता हूँ. यहाँ पलम्बिंग का काम करता हूँ. पहली बार यहाँ आया तो अच्छा नहीं लगा था. पर क्या करें पैसे के लिए कहीं तो मन लगाना ही पड़ेगा.”
‘बीवी बच्चे याद आते हैं’
वहीं बिस्तर पर बैठे शर्मा राम का कहना था, “मैं बेतिया ज़िले से हूँ. पहले ड्राइवर का काम करता था, ट्रक ड्राइवर. लद्दाख़ में रहने वाले संदीप भइया ने मुझे यहाँ बुलाया. बस पहली बार यहाँ आया हूँ. यहाँ बीवी भी याद आती है और बच्चे भी याद आते हैं. पर पैसे के लिए हम लोग दबकर रह जाते हैं. यही तो हम लोगों की बदनसीबी है.”
वो हाथ में माइक लेते हुए बोले, “अभी इसी साल जनवरी में शादी हुई है. उनकी याद मुझे बहुत आती है. वो मुझे अच्छी लगती हैं लेकिन दुख की बात है कि शादी के कुछ समय बाद ही मैं लद्दाख़ चला आया. उनके दिल पर क्या गुज़रती होगी. जो मेरे दिल पर गुज़रती है वो उनके दिल पर भी गुज़रती होगी.”
एक स्वर में सबने बताया कि कैसे बिहार में रोज़गार की कमी के कारण वे मीलों दूर चंद पैसे कमाने के लिए लद्दाख़ में रहते हैं जहाँ का खान-पान, बोली, संस्कृति, मौसम बिल्कुल अलग है.
‘लद्दाख़ के लोग बहुत अच्छे हैं’
कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनके घर वाले बिहार से 30-40 साल पहले लद्दाख़ आए थे और यहीं के होकर रह गए. इन लोगों में बिहार और लद्दाख़ दोनों बसता है पर अब इनका दिल लद्दाख़ का हो चुका है.
संदीप उन्हीं लोगों में से एक हैं और बिहार से कई लोगों को लद्दाख़ लाने में उनकी भूमिका रही है. वे बताते हैं, “हमारे पिता जी कोई 35 साल से यहीं रहते आए हैं. वो बिहार नहीं गए इसलिए हम भी यहीं पले बढ़े. पढ़ाई भी यहीं की है. इसलिए अब यहीं पर अच्छा लगता है. लद्दाख़ के लोग भी बहुत अच्छे हैं.”
संदीप जितने फ़र्रोटे से भोजपुरी बोल लेते हैं उतनी ही स्पष्टता से लद्दाख़ की बोली में भी बातचीत करते हैं. दबे स्वर में ही सही पर हमारी गुज़ारिश पर उन्होंने चंद लाइनें लद्दाख़ की भाषा में भी बोलकर सुनाई जिस पर ख़ूब ताली बजी.
काफी साल पहले एक फिल्म आई थी दिलजले जिसमें पहाड़ों का सीन आया था. वही सीन देखने के लिए मैं इधर आया.
ज़ाहिर है मुश्किलें कई हैं, लेकिन बहुत सी ऐसी बातें भी हैं जो बिहार के इन लोगों को लद्दाख़ में भा गई हैं. बिहार से ही आए ज्योतिष कुमार की बात मुझे सबसे अलग लगी. बड़ी मासूमियत से उन्होंने बताया, “काफ़ी साल पहले एक फ़िल्म आई थी दिलजले जिसमें पहाड़ों का सीन आया था. वही सीन देखने के लिए मैं इधर आया.”
कइयों का मानना है कि बिहार में कई कमियाँ और दिक्क़ते हैं जो लद्दाख़ में झेलनी नहीं पड़ती.
शर्मा राम कहते हैं, “बिहार में हमारी पढ़ाई लिखाई नहीं हो पाई, लालू राज का असर था. अब यहाँ आए हैं. जैसे लद्दाख़ का पानी साफ़ वैसे ही यहाँ के लोगों का दिल साफ़ है.”
वहीं संदीप का मानना है कि बिहार में चोरी-चकारी की बहुत शिकायतें रहती हैं पर लद्दाख़ में ऐसा कुछ भी नहीं.
‘बिहार भी एक दिन जन्नत बन जाएगा’

बिहार से दूर रहते हुए भी वहाँ की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति पर इनकी पैनी नज़र रहती है.
प्रदीप कुमार ने पूरा समीकरण समझाते हुए कहा, “बिहार में कई दिक्क़ते थीं. जनसंख्या ज़्यादा है, माँ-बाप बच्चों को पढ़ाते नहीं थे. सड़क बिजली की बहुत तंगी रही है. शिक्षा की कमी है. लेकिन आज बिहार में बहुत बदलाव आया है. ग़रीब भी बच्चों को पढ़ाना चाहता है. लोग सरकार से लड़ने के लिए तैयार हैं. पहले के हमारे बुज़ुर्ग बस जाते थे, मूँछ ऐंठ लेंगे और बैठे रहेंगे. लेकिन अब लोग मूँछ ऊपर कर के, सीना चौड़ा करके अपना हक़ माँगने लगे हैं. हमारे समय में तो नहीं लेकिन लगता है कि हमारे बच्चों के आते-आते अपना बिहार भी एक दिन जन्नत बन जाएगा.”
एक ओर पैसे कमाने की ललक और दूसरी ओर घर परिवार की याद. इन्हीं के बीच झूलते रहते हैं ये लोग. इसी में थोड़ी मस्ती, लिट्टी चोखा, भोजपुरी में हँसी ठट्ठा ये सब भी चलता रहा है. जब बात खाने और भोजपुरी गीत-संगीत की चली तो शर्मा राम की आँखों में जैसे चमक आ गई है.
पास में पड़े म्यूज़िक सिस्टम की ओर इशारा करते हुए वे भोजपुरी वे बोले, “उधर चलता है कि दुल्हिन रहे बीमार निरहुआ सटल रहे. उधर से लावे नी जा. हमनी के एहिजा बजावेनीजा. ओतने में हमनी के दिलचस्बी रहेगा. एहिजा के गाना एहिजा रहेला और हमनी के गाना अलगे रहेला. ओन्हिये से भराके ले आवे नि जा, एने बस मन लगावे ला.”
(कहने का मतलब ये कि यहां का गाना यहां रहता है और हम लोगों का गाना अलग ही होता है. उधर से ही भरा कर ले आते हैं, यहां तो वही मन लगाता है.)
इसी तरह बातें-बातें करते कब एक घंटा निकल गया पता ही नहीं चला. भारत में, भारत से बाहर ऐसे कितने ही लोग हैं जो रोज़ी रोटी की ख़ातिर अपनों से दूर मुश्किलों में जीवन बिताते हैं. लेकिन कहीं न कहीं परदेस की खुशबु में रच बस भी जाते हैं. जैसे लद्दाख़ में बसा ये मिनी बिहार…
Credits- BBC
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