Homeएक कविता बिहार सेजाने क्यों वो काग़ज की नाव मुस्कुराई | एक कविता बिहार से Neha Nupur एक कविता बिहार से इस कविता की भूमिका में कुछ भी नहीं| “एक कविता-बिहार से!” में आज सीधे-सीधे मुलाकात कराते हैं बिहार की युवा कवयित्री प्रतिमा सिंह जी की ‘अहा! जिन्दगी’ पत्रिका में प्रकाशित इस रचना से| थोड़ा धैर्य मांगेगी, और फिर आश्चर्य नहीं होगा आपको, वहीं पहुँचेंगे जहाँ यह कविता ले जाना चाहती है- बचपन की तरफ| कविता दिल तक पहुंचे तो सूचित करें| साज़िश वक्त की दहलीज पार कर, आया है मन, इस बार फिर से देखने बचपन का आंगन, खिलौने वैसे ही, मुंह फुलाए पड़े हैं, मिट्टी के घरौंदे वैसे ही अकड़े से खड़े हैं… कुछ शोर खेलने, लड़ने, झगड़ने के कानों में मिश्री-सी घोल रहे हैं, कुछ मासूम से सपने मुझे रुकने को बोल रहे हैं, जाने क्यों वो काग़ज की नाव मुस्कुराई, शायद वो ही वक्त की साज़िश को समझ पाई मन को लौटना होगा फिर से, जहाँ हम चल रहे अधूरे अकेले मुंतज़िर से|