HomeBiharमैं तेरे इश्क़ में सरमाया-दार बन के रहा | एक कविता बिहार से Neha Nupur Bihar, एक कविता बिहार से हवा के होंट खुलें साअत-ए-कलाम तो आए, ये रेत जैसा बदन आँधियों के काम तो आए| बिहार के बेगुसराय में 1 जुलाई 1981 ई० को जन्में ग़ालिब अयाज़ जी जीविका के सिलसिले में दिल्ली में निवासित हैं| जीवन के मीठे और कटु अनुभवों को बहुत ही खूबसूरती से बयाँ करते हैं| कॉलेज के जमाने से लिखने का शौक चढ़ा और तभी से उर्दू पत्र-पत्रिकाओं में छपते आ रहे हैं| अब तक कोई किताब तो प्रकाशित नहीं की इन्होंने मगर इतनी जगह छप चुके हैं कि ग़ज़ल लिखने वालों में नाम और पहचान बना चुके हैं| तो आइये आज पटनाबीट्स पर ‘एक कविता बिहार से’ में एक युवा गज़लकार ग़ालिब अयाज़ जी की ग़ज़ल का लुत्फ़ उठाते हैं, कठिन शब्दों के अर्थ के साथ| ग़ज़ल 1 कभी गुमान कभी ए’तिबार बन के रहा, दयार-ए-चश्म में वो इंतिज़ार बन के रहा| हज़ार ख़्वाब मिरी मिलकियत में शामिल थे, मैं तेरे इश्क़ में सरमाया-दार बन के रहा| तमाम उम्र उसे चाहना न था मुमकिन, कभी कभी तो वो इस दिल पे बार बन के रहा| उसी के नाम करूँ मैं तमाम अहद-ए-ख़याल, दरून-ए-जाँ जो मिरे सोगवार बन के रहा| अगरचे शहर में ममनू थी हिमायत-ए-ख़्वाब, मगर ये दिल सबब-ए-इंतिशार बन के रहा| [दयार-ए-चश्म – House of Eyes, सरमाया-दार – Capitalist, बार – Load/ Burden, अहद-ए-ख़याल – Period of thought, दरून-ए-जाँ – Inside Life, सोगवार – Sad, ममनू – Prohibited, हिमायत-ए-ख़्वाब – Support of Dreams, सबब-ए-इंतिशार – Cause of Anarchy] ग़ज़ल 2 हुस्न के ज़ेर-ए-बार हो कि न हो, अब ये दिल बे-क़रार हो कि न हो| मर्ग-ए-अम्बोह देख आते हैं, आँख फिर अश्क-बार हो कि न हो| कर्ब-ए-पैहम से हो गया पत्थर, अब ये सीना फ़िगार हो कि न हो| फिर यही रूत हो ऐन मुमकिन है, पर तिरा इंतिज़ार हो कि न हो| शाख़-ए-ज़ैतून के अमीं हैं हम, शहर में इंतिशार हो कि न हो| शेर मेरे संभाल कर रखना, अब ग़ज़ल मुश्क-बार हो कि न हो| [ज़ेर-ए-बार – Thankful, मर्ग-ए-अम्बोह – Death of Mob, कर्ब-ए-पैहम – Constant Pain, ऐन – Exact] Share Tweet Share Pin Comments comments