HomeBiharमैं भूल जाता हूँ | एक कविता बिहार से Neha Nupur Bihar, एक कविता बिहार से गढ़ दी गयी कविताएँ स्त्री के भूगोल पर, चर्चाएँ आँख, कमर वक्ष पर खूब की गयी| स्त्री का इतिहास भी अछूता नहीं रहा, देवी से लेकर दास तक की गाथा खूब लिखी गयी| मनोविज्ञान भी स्त्री का खूब समझा गया, त्याग, करुणा, समर्पण तो कभी इर्ष्या लोभ और षड्यंत्र से सजायी गयी| समाजिक रिश्तों में भी स्त्रियाँ समझी गयी, माँ, बहन, पत्नी, प्रेमिका और रखैल| सिर्फ समझा न गया तो ‘स्त्री’ का ‘स्त्री’ होना जो उसकी एकमात्र पहचान थी। एक युवा लेखक, कवि और ब्लॉगर हैं, गौरव गुप्ता| मूल रूप से बिहार के चकिया के रहने वाले हैं, दिल्ली में निवास है| लिखने-पढ़ने का शौक या यूँ कहें कि नशा-सा है| आधुनिक संसाधनों के माध्यम से इस शौक को पुख्ता जमीन देने की कोशिश भी कर रहे हैं| ‘स्त्री’ शीर्षक से उपर्युक्त कविता इनकी संवेदनशीलता का परिचय देती है| पटनाबीट्स को लिख भेजी हैं इन्होंने रचनाएँ, जिन्हें आज ‘एक कविता बिहार से’ में शामिल किया जा रहा है| ‘मैं भूल जाता हूँ’ शीर्षक के साथ इनकी ये रचना एक बुजुर्ग की तन्हाई का आलम साझा कर रही है| तो पेश है गौरव गुप्ता की ये रचना- ‘मैं भूल जाता हूँ’| मैं भूल जाता हूँ मैं भूल जाता हूँ चश्मा, घड़ी, पाजामा, मोज़े बनियान, दवाइयाँ| मैं भूल जाता हूँ ठण्ड में तापना है अलाव ओढ़नी है रजाइयाँ| बहु कहने लगी है मैं मेज पर पड़े फोटो को बार बार सिरहाने रख छोड़ देता हूँ| कल ग्लास का पानी भी गिर गया था तकिए पर ऐसा बेटे ने आज कहा| पुराने सन्दूक को यूँ ही बार बार खुला छोड़ देता हूँ, जिसमें रखी हुई है कुछ पुरानी यादें| पोता पूछता है, क्यों इस कबाड़ को मैं हर रोज खोलता हूँ| मैं भूल जाता हूँ दिन, तारीख, मौसम| टेबल लैंप रात भर जला रहता है, डायरी खुली छूट जाती है| बहु कहती है मेरी चहलकदमी से उसकी नींद टूट जाती है| मोज़े बदबू दे रही, चाय में चीनी ज्यादा पीने लगा हूँ, सब्जी में नमक की परवाह नहीं, अब न कुछ गलत लगता है, न ही कुछ सही| कभी-कभी घर तक आने वाले रास्ते को भूल जाता हूँ, इसलिए अक्सर बेंच पर घंटो बैठा रास्ते याद कर रहा होता हूँ, ऐसा छोटा बेटा रात के डिनर पर मुझसे पूछता है| शायद तुम्हें ज्यादा याद करने लगा हूँ, इसलिए भूल जाता हूँ, ऐसा मैं आईने में खुद को देख कर सोच रहा।