Homeएक कविता बिहार सेपर ख़ामोशी चुप्पी नहीं होती | एक कविता बिहार से Neha Nupur एक कविता बिहार से बड़ी देर से, सूखी बूंदें पलकों की छाँह हैं टटोल रहीं। बड़ी देर से, तुम्हारी बाट जोह रही हैं तुम्हारी निशानियाँ। बड़ी देर से, लगता है, कोई कविता जन्म लेने वाली है।। ‘बड़ी देर से’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ गहन विचारों में लिपटी मालूम पड़ती हैं| ‘एक कविता बिहार से’ के लिए पटनाबीट्स को ये कवितायें भेजी हैं युवा कवयित्री सेजल गुलाटी जी ने, जो 2 जनवरी 1995 को जन्मीं और बिहार के विक्रमगंज से संबंध रखती हैं, जो रोहतास जिले में है| दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद ये वहीं नौकरी करती हैं| साहित्य में विशेष रूचि रखने वाली सेजल की कविताओं में शब्दों से खेल के साथ-साथ छोटी-छोटी वस्तुओं से सहज आत्मीय जुड़ाव भी देखने को मिलता है| आईये पढ़ते हैं, इनकी दूसरी कविता… जरा विस्तार से! ख़ामोशी का अस्तित्व भटकती नहीं ख़ामोशी, बल्कि ढूंढती हैं निगाहें, तलाशती हैं घरों को। रेंगती है नालियों और गटरों में, कि वो भी घर हैं बहते-भटकते-डूबते, कि वो भी घर हैं क्षणिक जड़ता से सराबोर।। खामोशी पढ़ती हैं ईंटों-दीवारों को सिमटे हों जिनमें गंध किताबों की, मिट्टी के तेल और पसीने की, ज़्यादा-कम, छज्जों से टपकती ख्वाहिशों में, भीगती है खामोशी। पर ख़ामोशी चुप्पी नहीं होती चुप्पी ढूंढती नहीं चुप्पी रेंगती नहीं पढ़ती और भीगती भी नहीं सिर्फ बस जाती है मकानों में जिनमें पनपती नहीं खामोशी, जिनमें घूँटते हैं परिंदे और जन्मते नहीं सपने, जिनमें लाशें प्राकृतिक मौत नहीं मरते। ख़ामोशी ढूंढती है खामोश होने की कला जो बिकती नहीं बाज़ारों में कि ख़ामोशी जन्मती है, अपना रचयिता स्वयं।