इन सड़कों पे | एक कविता बिहार से

पटनाबीट्स पर “एक कविता बिहार से” में आज एंट्री ले रहे हैं निदेशक श्री नितिन चंद्रा जी। ‘मिथिला मखान’ बनाकर राष्ट्रीय पुरस्कार पा चुके हैं। ‘देसवा’ बनाकर साबित किया था इन्होंने कि भोजपुरी ‘अश्लीलता’ से कितनी दूर हो सकती है। इनकी अब तक बनाई हुई सारी फिल्में खास दर्शकों को लुभाती आई हैं। जानना सुखद है कि चंद्रा जी कविताओं में भी रूचि रखते हैं। लिखते भी हैं। कविता पर नितिन चंद्रा जी की पकड़ आज की ‘एक कविता बिहार से‘ में :इन सड़कों पे |

इन सड़कों पे

सुन्न से मिजाज़, शिथिल से शरीर में, सोयी आत्माओं को, देखता हूँ विचरते इन सड़कों पे

खोता है धैर्य, रोता है मन, जब देखता हूँ अराजकता को संवरते इन सड़कों पे.

ना आँख में नूर, ना चेहरे पर इनके चमक, देखता हूँ इंसानों को रोज बिखरते इन सड़कों पे.

ना बदलनी है मिट्टी, ना बदलने को है फलक का रंग, मेरे सिर्फ बिफरने से इन सड़कों  पे.

शाशवत सन्नाटो से कोइ आवाज नहीं देता, इन इंसानों से उमड़ते इन सड़कों पे.

ना जाने क्यूँ खो रही है आत्मा और सम्मान, गाड़ियों की गूँज से गरजते इन सड़कों पे.

देखता हूँ इन रंग – बिरंगे कपड़ों में लिपटे विकृत असत्य को रोज गुजरते इन सड़कों पे.

ना वोह सोचता है ना वोह सोचना जानता है की क्या बदलना है उसको इन सड़कों पे.

किसी कुंठा में है या किसी षड़यंत्र का शिकार, वो क्यूं नहीं नहीं बिलखता इन सड़कों पे.

“दूर के ढोल सुहावने” क्यूँ हो गए हैं, नहीं बरसता अब उस विरासत का रंग इन सड़कों पे.

पान के उस लाल पीक में धरोहर का खून बिखरा पड़ा है इन सड़कों पे.

जितनी बची है, क्या उतनी भी हम बचा पाएंगे परम्परा इन सड़कों पे.

सुन्न है शायद, इस शुन्य में दिखता नहीं, इनको कुछ भी बिगड़ते इन सड़कों पे.

हैरान सा मैं चला जाता हूँ, सोचता हूँ क्या ये वही शहर जो अब रहा नहीं इन सड़कों पे.

क्यूँ खोती है जमीन यहाँ पर, और सोती हैं दसों दिशायें इन सड़कों पे.

राह न कोइ मंजिल का पता, संस्कृति क्यूँ लरजती (कांपती) है इन सड़कों पे.

ना कोइ भाषा ना कोइ पहचान मिट्टी की, तमीज़ क्यूँ सिहरती है इन सड़कों पे.

आगे निकलने की होड़ तो दूर, पीछे रहने का रंज भी नही टपकता इन सड़कों पे .

और सिर्फ बात ये नहीं है की उसने पुकारा नहीं हमें देख कर भी इन सड़कों पे.

उसने देख कर अनदेखा किया जब मैं परेशान खड़ा था उलझते इन सड़कों पे.

इस शहर को सिर्फ शामियाना भर, न जाने क्यूँ समझते हैं लोग इन सड़कों पे.

हो सकता है आशियाना भी ये शहर अगर हम चाहे कभी, इन सड़कों पे.

अब देखना है की कब फिर से वो दिलेर ख्वाब सजते हैं इन सड़कों पे.

कब कोइ निकल आये और कह दे की अब सब कुछ बदलेगा इन सड़कों पे.

अब देखना है की कब फिर से वो दिलेर ख्वाब सजते हैं इन सड़कों पे.

कब कोइ निकल आये और कह दे की अब सब कुछ बदलेगा इन सड़कों पे!!