HomeBiharआज़ाद क्या हुए, बिलगाव में हैं उलझे | एक कविता बिहार से Neha Nupur Bihar, एक कविता बिहार से खगड़िया, बिहार के निवासी कैलाश झा किंकर जी का जन्म 12 जनवरी 1962 को हुआ| ये सक्रिय कवि होने के साथ-साथ ‘कौशिकी’ नामक पत्रिका के संपादक भी हैं, कविता की 10 किताबें भी लिख चुके हैं| श्री कैलाश जी के द्वारा साझा की गयी रचनाओं में से दो ग़ज़लें आज पटनाबीट्स के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं| हम मना रहे हैं ‘अगस्त का महीना-आज़ादी का महीना’| इसी सिलसिले में देश-प्रेम से दर्शाती, ज्ञानोदय प्रकाशन, कर्नाटक से प्रकाशित राष्ट्रीय सहयोगी काव्य संकलन “अपनी कविता-सबकी व्यथा” में प्रकाशित, ये ग़ज़लें देश के हालात की तरफ ईशारा तो करती हैं, वहीं हालात के बेहतरी की उम्मीद भी जगाती हैं| बिहार के प्रचलित पोर्टल पटनाबीट्स के खास कार्यक्रम ‘एक कविता बिहार से’ की आज की कड़ी में आइये पढ़ते हैं श्री कैलाश झा किंकर जी की ग़ज़लें| गज़ल-1 आज़ाद हो गये पर उलझाव में हैं उलझे दरिया को पार करके अब नाव में हैं उलझे| टुकड़े हुए हैं इतने अब जात-पात लेकर शहरों को छोड़िये हम तो गाँव में हैं उलझे| हरिजन, सवर्ण, पिछड़े उलझे महादलित में आज़ाद क्या हुए हम बिलगाव में हैं उलझे| समता की बात अब तो उठती कहीं नहीं है हमलोग आज सचमुच सद्भाव में हैं उलझे| गज़ल-2 इतना तो पता है कि ये दूरी न रहेगी हक की ये कहानी भी अधूरी न रहेगी| रिश्वत का कहीं ठौर-ठिकाना न रहेगा नेता की सिफारिश भी जरूरी न रहेगी| पाएंगे सभी काम हुनर के ही बदौलत डिग्री की नकल की ये फितूरी न रहेगी| नौकर की तरह काम करेगा ये महकमा अफसर की कहीं भी जी-हुजूरी न रहेगी| दुल्हन को तिलक देंगे ये दुल्हे के पिताजी आँसू के समन्दर में ये नूरी न रहेगी|