बिहार की संस्कृति का आधार है बिहारी लोकगीत

लोगों की आत्मा से उपजे गीत हैं, जिनका कोई रचनाकार नहीं होता, कोई काल नहीं होता, इन गीतों की बोली में बोलता है पूरा समाज। इनमें पीड़ा, उल्लास, प्रेम, समर्पण, जुदाई के पल है, मिलन की आस भी है। इनमें निरर्थक शब्द भी हैं और शब्दों से अनजान भावनाएं भी है।लोकगीत केवल संस्कृति के वाहक नहीं हैं अपितु समाज का आईना है। लोकगीत आम लोगों के द्वारा गाए जाने वाले गीत हैं जो कि मानव की उत्पत्ति से चले आ रहे हैं। 

भाषा और व्याकरण के नियमों से अनजान इन गीतों में अलंकार नहीं होते, छंद नहीं होते,कोई विज्ञान नहीं होता,अनुशासन नहीं होता। भारत विविधताओं का देश है,अनेक धर्मों एवं संस्कृतियों का संगम है, कहते हैं कि यहां “कोस कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी “।

बिहार में कई लोक भाषाएं बोली जाती हैं- जैसे भोजपुरी , मगही ,मैथिली, अंगिका, बज्जिका, नागपुरी, खोरठा,  इत्यादि। बिहार में जहां पूरब में अंगिका वहीं पश्चिम में भोजपुरी लोकगीत प्रसिद्ध हैं। पटना, गया के क्षेत्रों में जहां मगही लोकगीतों का बोलबाला है वही मिथिलांचल में मैथिली लोक गीतों की गूंज सुनाई पड़ती है।

लोकगीत विभिन्न प्रकार से रचे और गाए जाते हैं, लोकगीतों की अलग अलग श्रेणियां होती हैं जैसे – मंगल गीत, प्रेम गीत, विवाह गीत, ऋतु गीत इत्यादि।इन गीतों को किसी साहित्य या प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं, इन्हें कागजों पर लिखकर नहीं बल्कि गा-बजाकर  संजोया गया है। 

प्रत्येक लोकगीत को जान पाना अत्यंत मुश्किल है परंतु लोकगीतों को अलग-अलग श्रेणियों में बांटकर समझने का प्रयास तो हम कर ही सकते हैं।

संस्कार संबंधी लोकगीत –

जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कारों में जन्म, मुंडन, यगोपवित, विवाह, मृत्यु आदि संस्कार हैं। सभी संस्कारों से जुड़े लोक गीत भी हैं। 

बच्चे के जन्म के अवसर पर खुशी से सोहर गाया जाता है जिसका एक उदाहरण काफी प्रसिद्ध है –

मुहवा तो हवे जैसे माई के

 होठवा ह बाबू के हो

 ए ललना नकिया त सुगवा के ठोरवा 

महलिया उठे सोहर हो 


जन्म आदि के अवसर पर जहां प्रसन्नता के स्वर गूंजते हैं वही मृत्यु के अवसर पर हृदय विदारक लोक गीत गाए जाते हैं, जिन्हें निर्गुण कहा जाता है-

छुटी गइले महल अटरिया 

घोड़ा के सवरिया छूटल ए राम 

चली देहलन काशी नगरिया 

त केकर नजरिया लागल ए राम

ऋतु संबंधी लोकगीत

बिहार में रंग बिरंगी संस्कृतियों के साथ ही रंग-बिरंगे मौसम भी हैं, और हर मौसम से जुड़े त्योहार भी। वसंत और फागुन में रंग और उल्लास होता है वहीं चैत्र बड़ा ही पवित्र माना जाता है, और सावन की तो बात ही निराली है।फाल्गुन मास में ‘होरी’ या ‘जोगीरा’ या ‘फगुआ’ की गूंज हर तरफ सुनाई पड़ती है। फगुआ प्रायः मर्दों द्वारा घर के बाहर या किसी खुले स्थान पर एकत्रित हो ऊंचे स्वर में झूमते हुए गाय जाते हैं।

 ‘होरी’ में देवर-भाभी, जीजा-साली के रिश्ते से जुड़े संवाद खट्टे मीठे मजाकिया अंदाज में गाए जाते हैं। इन गीतों में राम-सीता एवं शिव-पार्वती के होली से जुड़े संवाद भी गाए जाते हैं।

पनिया लाले लाल 

ए गौरा हमरो के चाही

 ए अरभंगिया तू रही गईला भोला

 लाले रंग पनिया बतावा कहबा होला 

खरीदें के परीहैं गुलाल हो 

आरे खरीदें के परीहै गुलाल हो

 ए गौरा हमरो के चाही 

सावन में जब धरती सबसे आनंदित होती है तब पेड़ की डालियों पर लगे झूलों संग झूलते हुए ‘कजरी’ या ‘कजली‘ गाई जाती है। सावन में घिरने वाले काले बादलों को संबोधित करने के लिए ही इन गीतों को कजरी कहा जाता है।कजरी प्रायः दो लोगों के बीच का संवाद होता है जैसे पति-पत्नी के बीच का संवाद या प्रेमी-प्रेमिका के बीच का संवाद जोकि कुछ इस प्रकार गाए जाते हैं-

अरे रामा जबले ना लाइबा झुलनिया 

देहिब न दाना पनिया ए रामा

चैत मास चुनरी रंगा दे हो रामा 

चैती

 ठीक इसी प्रकार चैत्र मास में ‘चैता’ या ‘चैती’ गाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि चैत्र मास में भगवान श्रीराम का जन्म हुआ था इसलिए चैती गीत की हर पंक्ति के बाद रामा शब्द लगाया जाता है।

अब के सजनवा 

चुनरी रंगा दे पिया 

गोटवा लगा दे

व्रत संबंधी लोकगीत

सभी धर्म और जाति के अपने-अपने व्रत मनाये जाते हैं। इन व्रतों से जुड़े लोकगीतों की भी भरमार है बिहार में- करमा व्रत, तीज व्रत, रामनवमी, तुलसी विवाह, वट सावित्री, छठ व्रत, भाई दूज  इत्यादि। 

छठ

छठ पर्व बिहार का महापर्व है जो कि बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है,कार्तिक शुरू होते ही चारों ओर छठ गीतों की मधुर गुंजन सुनाई पड़ने लगती है-शारदा सिन्हा एवं अनुराधा पौडवाल के छठ गीतों के बिना तो यह पर्व जैसे अधूरा लगता है।

 केलवा जे फरेला घवद से 

ओह पर सुग्गा मेंडराएं

ठीक इसी प्रकार मुहर्रम पर इमामबाड़ा का चक्कर लगाते हुए ‘झरनी’ गायी जाती है, इन गीतों में हाय हाय शब्द का प्रयोग होता है-

झरनी खेलाइतै अम्मा छुटलै पशेनावा

आंचरा से बेनिया डोलावाइ हाय हाय, हाय हाय

गोधन

भाई दूज पर लड़कियां गोधन कूटते समय अपने भाइयों के नाम से लोकगीत गाकर उनकी लंबी उम्र और खुशहाली की कामना करती हैं,

सोनू भईया चलले अहेरिया 

गुंजा बहिनी देली आशीष

 जिय सू हो मोरे भइया 

जिय ना लाख बरिश 

बाल क्रीडा संबंधी लोकगीत

बालपन से संबंधित लोकगीतों में ‘लोरी’ गाई जाती है। समूह में खेलते समय बच्चे जिन लोक गीतों को गाया करते हैं, जैसे की

ओक्का बोक्का तीन तलोका 

लउआ लाठी चंदन काठी

जाति संबंधी लोकगीत 

अहीर जाति के लोगों द्वारा ‘बिरहा’ एवं ‘लोरिकी’ गाया जाता है। लोरिक को अहिरों का महान पूर्वज माना जाता है। लोरिकी में वीर लोरिक और मंजरी के प्यार के किस्से गाए जाते हैं-

कितनो होई हैं अहीर सयाना,

लोरिक छाडी न गई हैं गाना 

‘पचरा’

इसी प्रकार दुसाध एवं माली जाति के लोगों द्वारा ‘पचरा’ गाया जाता है। माली एवं दुसाध, देवी के उपासक होते हैं। चेचक (शीतला माता), हैजा या अचानक हुए शारीरिक कष्ट को देवी का प्रकोप माना जाता है तथा लोगों द्वारा माली को बुलाकर ‘पचरा’ गवाया जाता है-

खोला ना केवरिया अंदर आवे द हे मैया

मालिया के बेटवा फुलवा लाइले हई हे मैया

चमार, कहार, धोबी, लोहार सबके अपने-अपने गीत हैं जो कि उस जाति के लोक देवों की कथाओं से सजे होते हैं। 

श्रम संबंधी लोकगीत

किसी भी काम को करते हुए जो गीत गाए जाते हैं उन्हें ‘श्रम गीत’,व्यवसाय गीत’ या ‘क्रिया गीत’ कहते हैं। 

चक्की चलाकर आटा पीसने के समय स्त्रियों द्वारा ‘लगनी’ गाई जाती है इसे ‘जँतसार’ भी कहा जाता है, खेतों में काम करते हुए महिलाओं एवं पुरुषों द्वारा अपनी थकान मिटाने के लिए भी लोक गीत गाए जाते हैं। श्रमिक गीतों की तान कार्य के अनुरूप होती है जैसे ‘रोपनी’ के गीतों की लय लहरों की तरह गिरती है फिर उठती हैं। 

सावन की फुहारों में भीगती महिलाएं ‘रोपनी’ के गीत कुछ इस प्रकार गाती हैं-

 बहे के त पुरूबा रामा

 बही गइले पाछेया रामा 

बही गईले ना 

उजे अजबी बेयरिया रामा 

बही गईले ना 

विवाह संबंधी लोकगीत 

विवाह की हर रस्म के लिए अलग-अलग लोक गीत गाए जाते हैं -जैसे कि हल्दी गीत,मटकोर गीत,परछावन गीत,तिलक गीत इत्यादि।

पारंपरिक लोकगीतों में महिलाओं द्वारा गालियों का भी प्रयोग होता है जो कि मनोरंजन के लिए किया जाता है। गालियों के माध्यम से माहौल को मजाकिया और खुशनुमा बनाया जाता है जैसे कि मटकोर के रस्म में गाली गलौज हंसी ठिठोली होती है। 

कहवाँ के पियर माटी 

कहां के कुदारी हे

कहवाँ के फुआ छिनारी 

माटी कोड़े जाली हे

डोमकच’

इसी प्रकार विवाह की रात्रि को जब घर के सारे मर्द बारात में चले जाते हैं तब वर पक्ष की महिलाएं ‘डोमकच’ करती हैं जोकि एक लोक नाट्य है। इसमें महिलाएं औरत और मर्द बन कर गीतों के माध्यम से नाटक प्रस्तुत करती हैं। 

 इमली घोटने की रस्म के दौरान दुल्हन या दूल्हे के मामा का मजाक उड़ाते हुए लोक गीत गाए जाते हैं जो कि कुछ इस प्रकार है-

मामा हाली हाली इमली घोटावा न मामा मामा हाली हाली ,

जईसन बकरी के पोंछ ओइसन मामा के मूंछ, मामा हाली हाली 

इन श्रेणियों के अलावा विशिष्ट लोकगीत भी होते हैं जो कि विशिष्ट मौकों पर गाए जाते हैं जैसे कि समाज सुधार के गीत ,नारी स्वतंत्रता के गीत, झूमर, विदेशिया आंदोलन से जुड़े गीत इत्यादि। समाज सुधारक लोक गीत का उदाहरण है-

कहब त लग जाई धक्क से, धक्क से

बड़े बड़े लोगन के बंगला दु बंगला

और भैया ए सी अलग से

हमनी ग़रीबन के झोपड़ी जुलम बा

बरसे त पानी चु जाए टप्प् से

राष्ट्रीय आंदोलनों में भी बिहार के लोक गीतों का योगदान सराहनीय रहा,  गांधी के विचारों तथा आजादी की लड़ाई को दूर गांव तक पहुंचाने का कार्य इन लोकगीतों द्वारा किया गया-

जबरदस्ती से लेहब सुहाग हमार कोई का कर ली

टीका में जयहिंद,टैरा में जयहिंद

बिंदिया में गांधी महाराज

हमार…

भिखारी ठाकुर का एक मशहूर विदेशिया  है-

 गवना कराई सैया घरे बईठवले

 से अपने लोभाईले परदेस रे विदेशिया

इतनी विविध संस्कृति का हिस्सा होना हम सभी के लिए एक गर्व की बात है ,साथ ही यह हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी इस धरोहर को प्यार और सम्मान के साथ अपनी आने वाली पीढ़ी को उसी तरह सौंप दें जिस तरह यह हमें अपने पूर्वजों से विरासत में मिली है।