“भारत में संगीत की उत्पत्ति विद्यांचल में और कला की उत्पत्ति भोजपुर में हुई है,” निलय उपाध्याय ने पटनाबीट्स से भोजपुरी कला के ऊपर बातचीत में बताया।
निलय उपाध्याय, एक लेखक है और इन्होंने ने अब तक 40 से ज्यादा किताबें लिखी है। उन्होंने बताया कि “भोजपुरी कला लोगों के जीवन में सदियों पहले से रही है लेकिन इसे पहचान तब मिली जब भृगु ऋषि ने बलिया में, गंगा, सरजू और सोन नदी का जहां संगम हुआ करता था, वही पर सृष्टि का सबसे बड़ा यज्ञ का आयोजन किया। इस आयोजन में उस क्षेत्र की कला, भोजपुरी कला का प्रदर्शन किया गया। तभी भोजपुरी कला को अपनी एक पहचान मिली।”
“भोजपुरी कला मूल रूप से पिंड कला है, जो कई बिंदु से मिलकर बनाई जाती है। इसमें रेखाएं दिखाई तो देती है लेकिन ये रेखाएं एक दूसरे से मिलती नहीं है,” निलय ने कहा।
भोजपुरी कला के दो रूप है – कोहबर और पिड़िया। दोनों रूप की अलग-अलग अवसर पर अंकित की जाती है।
कोहबर शादी के समय बनाया जाता है वही पिड़िया भाई बहन के रिश्ते को दर्शाता है और इसे पिड़िया नाम के त्योहार पर औरतें और लड़कियां मिलकर दीवार पर बनाती है। इन चित्रों को बनाने के लिए प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है। इसमें पत्तों को कूटकर हरा रंग और चावल को पीसकर उजला रंग बनाया जाता है। स्याही के लिए जामुन के छाल का प्रयोग होता है। इसके अलावा इन चित्रों को बनाने के लिए गोबर, मिट्टी और सिंदूर का भी प्रयोग किया जाता है। कहीं-कहीं इन्हें लाल रंग या आलता से भी बनाया जाता हैं। और बांस को फाड़कर उससे ब्रश बनाया जाता है।
निलय बताते हैं कि “कोहबर की प्रक्रिया तब शुरू हुई जब विवाह संस्कार बने और कोहबर विवाह के 64 संस्कारों में से एक है।”
“जब भी लोक कला रची जाती है तो उसके साथ गीत जरूर गाया जाता है। यह परंपरा बरसों से चली आ रही है,” भुनेश्वर भास्कर, बताते है । वह लेखक है जिन्होंने भोजपुरी कला और लोक गीत पर कई किताबें लिखी है।
“कोहबर में जितनी भी चीजें बनाई जाती है उन सब का अपना एक अलग अर्थ है। बांस वंश को, पुरैन का पत्ता परिवार की बढ़ोतरी को, स्वास्तिक चिन्ह गणेश, कंघी श्रृंगार को, लौंग शुद्धिकरण और सूर्य भविष्य को दर्शाने के लिए प्रयोग किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि कमल भारतीय संस्कृति का चिन्ह है। जिस प्रकार कमल कीचड़ में होने के बाद भी अलग होता है, वैसे ही हमें संसार में रहते हुए संसार से अलग जीवन जीने में ही ब्रह्मानंद के सहोदर का आनंद प्राप्त होता है,” भुनेश्वर भास्कर ने बताया।
“पिड़िया कला घर की लक्ष्मी से जुड़ी ज्यादातर चीजों को दर्शाया जाता है जैसे झाड़ू, चूल्हा, सांप, बिच्छू, सूर्य, चांद, आदि,” भुनेश्वर भास्कर ने कहा।
“इस कला को सीखने में कई दिन लग जाते है। ये दीवार पर जितनी आसानी se बनाई जाती है, इसे कागज़ पर बनाने में उतनी ही मुश्किल होती है। मुझे कागज़ पर ब्रश से बनाना सीखने में 6 महीने का वक्त लग गया था,” विनिता भास्कर ने कहा। इन्होंने कई आयोजन में अपनी भोजपुरी कला का प्रदर्शन किया है।
“जिस कला को बाजार नहीं मिलता उसे प्रसिद्धि भी नहीं मिलती। जो कला लोगों के दैनिक दिनचर्या में शामिल थी, अब वह खुद जीवन बन गई है। सभी कला अपने पुत्र का हजारों साल तक इंतजार करती है जो उसे उभरता है, उसमें बसता है, उसे समझता है। वैसे ही भोजपुरी कला अपने पुत्र का इंतजार कर रही है। अभी तक भोजपुर में ऐसा कोई आया नहीं है जो इस कला को निखारे,” निलय ने बताया।
“लोग पश्चिमी संस्कृति की चमक दमक की ओर भागते हैं लेकिन जब उन्हें भारतीय संस्कृति की अहमियत का अंदाजा होता है तब वह इसकी ओर लौटते हैं। भारतीय संस्कृति में बहुत ही सकारात्मकता और गुणवत्ता है। इसमें एक अपनापन है। जिसे लोगों को समझने की जरूरत है।” भुनेश्वर भास्कर बताते है।