
बिहार मतलब एक ऐसा राज्य जो की अपनी कला और शिल्प से समृद्ध है, जो इस तथ्य से काफी स्पष्ट है कि यह भारत के कई सारे पहले चित्रों का घर है। जिसमें प्रसिद्ध मधुबनी पेंटिंग का नाम सबसे पहले आता है। बिहार के जितवापुर गाँव में जन्म हुईं बौआ देवी ने एक उम्र-पुरानी परंपरा के माध्यम से मधुबनी की दुनिया में उस वक्त कदम रखा जब वह मुश्किल से 13 वर्ष कि ही थीं।
उनकी बालकनी के बाहर अशोक का पेड़ उन्हें उस प्रसिद्ध छवि की याद दिलाता है जहाँ रावण की लंका में पेड़ के नीचे भगवान राम की प्रतीक्षा में सीता बैठी महीनों गुज़ार दी थीं।
बौआ देवी ने 1984 में राष्ट्रीय पुरस्कार जीता और 2017 में पद्म श्री प्राप्त किया। बिहार में 1960 के अकाल के दौरान देवी की प्रतिभा को पहचान मिली। वह उस वक्त अपनी किशोरावस्था में थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को महसूस हुआ कि परेशान करने वाले समय को मद्देनजर रखते हुए आजीविका बनाने के लिए आंखों में बस जाने वाले चित्रों का उपयोग किया जा सकता है।
देवी पीएम गांधी की टीम द्वारा चुनी जाने वाली अग्रणी प्रतिभाशाली कलाकारों में से एक थीं, जिन्होंने अपने मिट्टी के चित्रों को कागज़ पर बख़ूबी दर्शाया। जब बौआ देवी नेशनल क्राफ्ट्स म्यूज़ियम के साथ काम कर रहीं थीं तब उनकी पहली कमर्शियल पेंटिंग में 50 पैसे मिले। तब से कभी पीछे मुड़कर नहीं देखी। इन वर्षों में, देवी की पेंटिंग स्पेन, जर्मनी, जापान और फ्रांस सहित कई देशों की यात्रा कर चुकी थी। दिलचस्प बात यह है कि उनकी हाल ही की एक पेंटिंग 50,000 रुपये की सस्ती कीमत पर बिकी। देवी की चित्रकला की एक अजीब शैली है जो कि छोटी चादरों से लेकर कैनवस तक 10 फीट तक बड़ी है। आधुनिक तकनीकों के बावजूद, वह टहनियाँ, माचिस, नीब-कलम और उँगलियों से पेंट किया करतीं हैं।
देवी की अधिकांश पेंटिंग रामायण और महाभारत, कृष्ण, काली, दुर्गा, और जानवरों और प्रकृति के पौराणिक आख्यानों को प्रसारित करती हैं। हालाँकि, उनकी सबसे पसंदीदा पेंटिंग वो हैं जहाँ उन्होंने सीता के परिप्रेक्ष्य को दर्शाया है।
हालांकि 78 साल कि बौआ देवी जिनके लिए दुनिया कि सबसे पसंदीदा चीज़ पेंटिंग है, बढ़ते उम्र के वज़ह से कार्य करने में थोड़ी कटौती हुई। लेकिन कला के प्रति उनके उत्साह में कोई कमी नहीं आयी है।
बिहार के मिथिला की पारंपरिक लोककथाओं और संस्कृति विरासत के अनुसार, हर माँ अपनी बेटी को मधुबनी के उपदेशों से गुज़ारती है। रिवाजों के अनुसार, गाँव की सभी महिलाएँ घर की दीवारों पर जटिल ज्यामितीय और रैखिक पैटर्न खींचने के लिए शादी या किसी विशेष अवसर के दौरान इकट्ठा होती हैं। कला आमतौर पर पौराणिक कथाओं, प्रकृति से प्यार और समृद्धि के प्रतीक के रूप में हुआ करती थी। यह प्रचलन 70 के दशक तक ही रहा। फिर, लोगों ने कागज और कैनवस पर मधुबनी का अभ्यास शुरू कर दिया।