
बिहार के मिथिलांचल का मुख्य जगह कहा जाने वाला दरभंगा अपने समृद्ध और अतीत के लिए पुरे हिंदुस्तान में प्रसिद्ध है। दरभंगा अपने महाराज के लिए पुरे हिंदुस्तान में जाना जाता है।
दरभंगा अपनी सांस्कृतिक और परंपराओं के लिए भी मशहूर है और शहर बिहार की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में लोकप्रिय है। यहाँ का इतिहास प्राचीन काल से जुड़ा है जिसका वर्णन भारतीय पौराणिक और महाकाव्यों में भी है।
मिथिलांचल का दिल’ कहा जाने वाला दरभंगा अपने गौरवशाली अतीत और प्रसिद्ध दरभंगा राज के लिए जाना जाता है। देश के राजे-रजवाड़ों में दरभंगा राज का हमेशा अलग स्थान रहा है। ये रियासत बिहार के मिथिला और बंगाल के कुछ इलाकों में कई किलोमीटर के दायरे तक फैली थी। दरभंगा राज के आखिरी महाराज कामेश्वर सिंह तो अपनी शान-ओ-शौकत के लिए पूरी दुनिया में मशहूर थे। इनसे प्रभावित होकर ही अंग्रेजों ने उन्हें महाराजाधिराज की उपाधि दी थी। इन्हीं महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह की पुण्यतिथि 1 अक्टूबर को मनाई जाती है। साल 1962 में इसी दिन महाराज कामेश्वर सिंह बहादुर का शरीर पंचतत्व में विलीन हुआ था।
ब्रिटिश इंडिया में इस रियासत का जलवा अंग्रेज ही मानते थे महाराज कामेश्वर सिंह के ज़माने में तो दरभंगा किले के भीतर तक रेल लइने बिछी हुई थी एवं ट्रेने आती-जाती थी। इतना ही नहीं दरभंगा महाराज के लिए रेल के अलग-अलग सलून भी थे। लोगो की माने तो इसमें ना केवल कीमती फर्नीचर थे ,बल्कि राजसी ठाट-बाट के साथ सोने-चाँदी भी जड़े गए थे। बाद में इस सलून को बरौनी के रेल यार्ड में रख दिए गए थे। दरभंगा महाराज के पास कई बड़ी जहाज भी थे।
महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह ने ही उत्तर बिहार में रेल लाइन बिछाने के लिए अपनी कंपनी बनाई और अंग्रेजों के साथ एक समझौता किया। इसके लिए अपनी जमीन तक उन्होंने तत्कालीन रेलवे कंपनी को मुफ्त में दे दी और एक हज़ार मज़दूरों ने रिकॉर्ड समय में मोकामा से लेकर दरभंगा तक की रेल लाइन बिछाई।
उत्तर बिहार और नेपाल सीमा तक रेलवे का जाल बिछाने में महाराज का बड़ा योगदान है। उनकी कंपनी तिरहुत रेलवे ने 1875 से लेकर 1912 तक बिहार में कई रेल लाइनों की शुरुआत की थी. इनमें दलसिंहसराय-समस्तीपुर, समस्तीपुर-मुजफ्फरपुर, मुजफ्फरपुर-मोतिहारी, मोतिहारी-बेतिया, दरभंगा-सीतामढ़ी, हाजीपुर-बछवाड़ा, सकरी-जयनगर, नरकटियागंज-बगहा और समस्तीपुर-खगड़िया लाइनें प्रमुख हैं।
लेकिन पिछले कुछ सालों में रेलवे ने दरभंगा महाराज की यादों और धरोहरों को सँभालने में दिलचस्पी दिखाई है। उम्मीद है कि विभाग के जरिए इस विरासत को बचाने की कोशिश होगी जिससे बिहार की आने वाली पीढ़ियां भी इस गौरवशाली इतिहास को जान सकेंगे।